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श्रि॒ये पू॑षन्निषु॒कृते॑व दे॒वा नास॑त्या वह॒तुं सू॒र्याया॑:। व॒च्यन्ते॑ वां ककु॒हा अ॒प्सु जा॒ता यु॒गा जू॒र्णेव॒ वरु॑णस्य॒ भूरे॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śriye pūṣann iṣukṛteva devā nāsatyā vahatuṁ sūryāyāḥ | vacyante vāṁ kakuhā apsu jātā yugā jūrṇeva varuṇasya bhūreḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्रि॒ये। पू॑षन्। इ॒षु॒कृता॑ऽइव। दे॒वा। नास॑त्या। व॒ह॒तुम्। सू॒र्यायाः॑। व॒च्यन्ते॑। वाम्। क॒कु॒हाः। अ॒प्ऽसु। जा॒ताः। यु॒गा। जू॒र्णाऽइ॑व। वरु॑णस्य। भूरेः॑ ॥ १.१८४.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:184» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शिष्य को सिखावट देने के ढङ्ग पर अध्यापकोपदेशक विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले ! तू (देवा) देनेवाले (नासत्या) मिथ्या व्यवहार के विरोधी अध्यापक उपदेशक (सूर्य्यायाः) सूर्य की कान्ति की (वहतुम्) प्राप्ति करनेवाले व्यवहार को (इषुकृतेव) जैसे वाणी से सिद्ध किए हुए दो पदार्थ हों वैसे (श्रिये) लक्ष्मी के लिये प्रयत्न कर। और हे अध्यापक उपदेशको ! (अप्सु) अन्तरिक्ष प्रदेशों में (जाताः) प्रसिद्ध हुई (ककुहाः) दिशा (वरुणस्य) उत्तम सज्जन वा जल के (भूरेः) बहुत उत्कर्ष से (युग) वर्षों जो (जूर्णेव) पुरातन व्यतीत हुई उनके समान (वाम्) तुम दोनों की (वच्यन्ते) प्रशंसा करती है अर्थात् दिशा-दिशान्तरों में तुम्हारी प्रशंसा होती है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसी बाणकृत सेना अर्थात् बाण के समान प्रेरणा दी हुई सेना शत्रुओं को जीतती है वैसे धन के श्रेष्ठ उपाय को शीघ्र ही करे, काल के विशेष विभागों में जो दिन है, उनमें कार्य जैसे बनते हैं, वैसे रात्रि भागों में नहीं उत्पन्न होते हैं, श्रेष्ठ गुणीजनों की सब जगह प्रशंसा होती है ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शिष्यशिक्षापरमध्यापकोपदेशकविषयमाह ।

अन्वय:

हे पूषन् ! त्वं देव नासत्या सूर्याया वहतुमिषुकृतेव श्रिये प्रयतस्व। हे अध्यापकोपदेशकावप्सु जाताः ककुहा वरुणस्य भूरेर्युगा जूर्णेव वां वच्यन्ते ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रिये) लक्ष्म्यै (पूषन्) पोषक (इषुकृतेव) वाणीकृताविव (देवा) दातारौ (नासत्या) असत्यद्वेषिणौ (वहतुम्) प्रापकम् (सूर्य्यायाः) सूर्यस्य कान्तेः (वच्यन्ते) स्तुवन्ति। व्यत्ययेन श्यैश्च। (वाम्) युवाम् (ककुहाः) दिशः (अप्सु) अन्तरिक्षप्रदेशेषु (जाताः) प्रसिद्धाः (युगा) युगानि वर्षाणि (जूर्णेव) पुरातनानीव (वरुणस्य) उत्तमस्य जलस्य वा (भूरेः) बहोः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा इषुकृतासेना शत्रून् विजयते तथा धनस्य सदुपायं शीघ्रमेव कुर्यात्, कालविशेषेषु दिनेषु कार्याणि रात्रिभागेषु नोत्पद्यन्ते सद्गुणानान्तु सर्वत्र प्रशंसा जायते ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी बाणासारखी वेगवान सेना शत्रूंना जिंकते तसे धनाने श्रेष्ठ उपाय तत्काळ करावेत. काळाचा विभाग असलेल्या दिवसा जसे कार्य घडते तसे रात्री होत नाही. श्रेष्ठ गुणी लोकांची सर्वत्र प्रशंसा होते. ॥ ३ ॥